दोस्तों आज का मेरा ये लेख, मेरे अंतर्मन की बात व मेरे व्यक्तिगत विचार हैं। इस लेख का मकसद किसी की भावनाओं को आधात पहुचाना बिलकुल नही है। यदि किसी को इस लेख से आपत्ति हो तो बिना किसी संकोच के अपनी राय कमेन्ट में रख सकता हैं ।
कल अचानक मेरी नजर फ़ेसबुक की एक पोस्ट पर पड़ी। किसी ने ये फोटो पोस्ट कर रखी थी।
एक सुंदर सी प्रतीत होने वाली नवयुवती एक काले आदमी के बगल में बैठी है।
फोटो का कैप्शन था। लंगूर के हाथ लग गयी हूर' या 'सरकारी नोकरी लगने का असर' या एसा ही कुछ और.. दिमाग पर काफी जोर डालने के बाद भी ओरिग्नल कैप्शन याद नही आ रहा ..
खैर!
फोटो भी एक मोहतरमा ने पोस्ट की थी. ये तो नही बताऊंगा कि किसने की थी, क्यूंकि बताकर कोई खाश फायदा नही!
बहुत से ऐसे लोग है जो बस मज़े और कमेंट्स या लाइक्स के लिए इसतरह के काम करते हैं।
जब ये चीज़ एक ट्रेंड बन चुकी है तो इसमें किसी व्यक्ति विशेष का कोई दोष भी नही .. एसा मेरा मानना है .
कुछ मिनट के बाद जब ये पोस्ट दुबारा दिखी तो ये फोटो अनगिनत लाइक और haha रिएक्शन की बारिश से शराबोर हो चुकी थी।
कमेंट में देखा तो वहां -
'अंधे के हाथ लग गयी बटेर'
'पैसा हो तो क्या कुछ नही हो सकता!" जैसे असंख्य कमेंट्स की जैसे बाड़ सी आ रखी थी।
इस चित्र में असामान्य क्या है ?
लड़की गोरी है लड़का काला है बस इतना ही ?
एक मिनट की माथापच्ची के बाद, कमेंट करने वालो की मनोदशा पर मै मन ही मन हँसता रहा।
और वास्तव में ये हंसने वाली ही बात है, कि हम कैसे समाज मे रहते हैं?
जहां किसी का मज़ाक उसके रंग के कारण उड़ाया जाता है।
बावजूद इसके की भौगोलिक दृष्टि से देखें तो उत्तर भारतीयों के अलावा अधिकांश भारतिय लोगों का मूल रंग काला अथवा सांवला ही तो है।
फिर हमें ये रंग-भेद कोन सिखा रहा है?
फेयर & लवली वाले?
या बॉलीवुड?
दोष दूसरों के मत्थे मढ़ने की बातआए तो फिर हम भारतिय किसी पर भी रहम नही करते।
लेकिन ये एक बात भी तथ्य है कि हमारे समाज की मानसिकता ही ऐसी है। विज्ञापन और फिल्मो ने तो बस आग में घी का काम किया हैं, और हमारी मानसिकता का फायदा उठाया है।
बचपन से हम जिस परिवेश में रहते है, उसने हमारे मनोविज्ञान पर इतना असर तो डाला ही है, कि हम काले आदमी को देखकर घृणा से भर जाते है।
हालांकि रंग भेद का कोई विशेष प्रशिक्षण लेने की जरुरत हमें पड़ती नही, परोक्ष रूप में हमारा समाज और फिर हमारा ये अवचेतन मन बिन कहे ये काम खुद ही कर देता है।
मगर अभी भी सवाल वही हैं- आखिर क्या देखा होगा उस लड़की ने उस काले लड़के मैं?
कुछ तो देखा ही होगा। कुछ तो आया होगा उसके अंतर्मन में .
लड़की को तो कोई भी मिल सकता था मगर वो काला ही क्यों?
मैं सोच ही रह था कि मेरा ध्यान बुकशेल्फ पर रखी एक किताब पर गया-अष्टावक्र गीता
और मेरे ज़हन में वो कहानी चलनी शुरू हो गई।
अष्टावक्र 12 वर्ष की उम्र में ही चारों वेदों, 18 पुराणों और समस्त्र शास्त्रों के ज्ञाता बन गए थे।
राजा जनक मुमुक्षु थे, तो उनके दरबार मे शास्त्रार्थ आदि का आयोजन समय समय पर होता रहता था।
12 वर्ष के अस्थावक्र भी चले गए। जाते भी क्यों नही!
सत्संग साधु को और ज्ञान की चर्चा ज्ञानी को अपनी और खींचेगी ही।
मगर आत्मज्ञानी विद्वान अष्टावक्र गलत थे।
वहां कोई ज्ञान-वान की चर्चा नही होने वाली थी।
वहां सब अपना रटा -रटाया पांडित्य दिखाने आये थे, जो उन्होंने सीखा था लेकिन जाना नही।
क्यंकि अष्टावक्र 8 अंगों से टेढ़े मेढे थे,और इसी कारण उनका नाम अस्थावक्र पड़ा।
जैसे ही उन्होंने जनक के दरबार मे प्रवेश किया। वहां मौजूद पंडित जो स्वयं को ज्ञानी समझते थे, उन्हें देख कर हँसने लगे।
अष्टावक्र ने एक नजर उन पंडितों की और देखा, फिर राजसिंहासन पर बैठें राजा जनक को ।
और फिर खुद भी जोर- जोर से हँसने लग गए।
"हम तो तुमारा ये विचित्र शरीर देखकर हंस रहे है। लेकिन तुम्हारी हंसी का क्या कारण है?" किसी ने प्रश्न किया।
" हँसीं आ रही है, क्योंकि मुझसे गलती हो गई।" फिर से हंसते हुए अष्टावक्र बोले।
"कैसी गलती?"
"मुझे लगा था राजा जनक के दरबार मे शास्त्रार्थ होने वाला है लेकिन…"
"लेकिन क्या?" इस बार स्वयं राजा जनक बोले।
" लेकिन मैं गलत जगह आ गया, आपने तो यहाँ चर्मकारों की भीड़ इक्कठा कर रखी है।"
"क्या मतलब है आपका? आशय स्प्ष्ट करे विप्रदेव!"
"मतलब, हे राजन! यहां मौजूद व्यक्तियों में यदि कोई सचमच का ज्ञानी होता, तो मेरे इस नश्वर शरीर पर हँसने से पहले मेरे ज्ञान को परखने में रुचि दिखाता।
लेकिन इन्हें तो मेरे इस बेडौल शरीर के अलावा कुछ दिखा ही नही।
ये लोग मेरे शरीर को देखकर हंस रहे थे,और मैं इन्हें देखकर!
क्यूँकि जिस राजा के ज्ञान की महिमा पूरे आर्याव्रत में गाई जाती है, उसने शास्त्रार्थ के लिए अपने दरबार मे चमारों की भीड़ इकट्ठा कर रखी है।"
" विप्रदेव! मैं कुछ समझ नही।"
" ब्रह्म जो जानने वाले ब्रह्मज्ञानी होते है, आत्मा के महत्व को जानने वाले आत्मज्ञानी होते है। और चर्म यानि चमड़ा अथवा शरीर को देखकर उसका मूल्य परखने वाले चर्मकार ही तो होंगे ना राजन!
चमार क्या करता है?
चमड़े का ही तो मूल्य लगाता है। क्यंकि उसे उसी का ज्ञान होता है, उसी की परख होती है, उसी कार्य मे वो प्रवीण होता है। है न राजन! ? "
इतना सुनते ही सभा मे उपस्थित सारे सारे चर्मकार अब मौन थे।
जी हाँ चर्मकार ! अष्टावक्र ने ऐसे लोगों को चर्मकार की ही संज्ञा दी है, जो आदमी की प्रतिभा का आकलन उसकी शारिरिक बनावट व रूप रंग के आधार पर करते हैं.
राजा जनकअष्टावक्र की कहानी बताकर मैं किसी को चर्मकार नही कह रहा।
और कह भी रहा हूँ तो आज की दुनिया मे कौन नही है चर्मकार?
चमड़े का ही तो मूल्य लगता है यहां। बिना ये जाने किचमड़े के अन्दर एक प्रतिभाशाली व्यक्तित्व भी हो सकता है।
किंतु इसमें आपका भी क्या दोष?
आजकी दुनिया का सारा मनोविज्ञान सारी व्यवस्था चर्मकारी पर ही तो आधारित है।
काला आदमी मतलब - गुंडा / कॉमेडियन/ हब्सी
काली लड़की मतलब- बदसूरत ugly/अंडरकांफिडेंस
चलो फिर से लौट आते है उसी सवाल पर।
ये सुंदर लड़की उस काले आदमी के साथ क्यों है?
कारण क्या है?
उसका पैसा?
पद?
प्रतिष्ठा?
या क्या पता इस लड़की की नजरों में पद पैसा प्रतिष्ठा के अलावा
कुछ और चीज़ अधिक महत्व रखती हो।
क्या पता वो उसे प्रेम करती हो!
जी हां प्रेम! क्योंकि जो शारिरिक सुंदरता देखे वो तो आकर्षण है।
प्रेम आत्मिक सुंदरता देखने का नाम है।
और ये बात भी सच हो सकती है कि वो लड़की पैसा /पद /प्रतिष्ठा के लिए उसके साथ हो।
अगर ये बात भी सत्य है तो इसमें गलत क्या है?
एक प्रतिष्ठित नेकदिल किंतु काले दिखने वाले इंसान के साथ जीना अच्छा है, या दिनभर ऐसे मीम्स बनाकर फेसबुक पर पोस्ट करने वाले हैंडसम मॉडल के साथ जीवन जीना?
अपने भविष्य को लेकर दूरदृष्टि रखना कहाँ गलत है ?
क्या आपने कभी चर्मकार वाले काले चश्मे को उतारकर ये समझने की कोशिश करी की वो काला आदमी आखिर हैं कोन?
आखिर क्या चीज़ है उस काली चमड़ी के अंदर?
अपने लिए हर कोई उच्चतम विकल्प ही चुनता है। वो लड़की इतनी खूबसूरत है कि उसे कोई भी मिल सकता है। लेकिन उसने उसे ही चुना।
हो सकता है।शायद वो लड़की चर्मकार नही। उसे परख हो इंसानों की , उनकी प्रतिभा की ।
कारण कुछ भी हो सकता है। लेकिन एक बार ये सवाल आप खुद से करना।
क्या देखा होगा उस सुन्दर युवती ने इस काले लड़के में ?
जवाब आपके ही भीतर कहीं छुपा होगा ।
सकारमनृतम विद्धि निराकारे तू निश्चलम।
एतत तत्वोपदेशेन न पुनभर्वसंभव:।।
अष्टावक्र गीता- प्रकरण 1 -श्लोक 18
12 टिप्पणियाँ
शक्ल नहीं, दिल देखिए
जवाब देंहटाएंआदमी के कर्म देखिए
जी बिलकुल सही कहा आपने .. युवा पीढ़ी को ये बात जरुर समझनी चाहियें .
हटाएंलोगों की मानसिकता ही ऐसी है गोरा रंग सुन्दरता का पैमाना बन गया। युवा पीढ़ी को फिल्टर लगाकर फोटो खींचने और वीडियो बनाने से फुरसत मिले तब तो सोचेगें।
जवाब देंहटाएंजी प्रीति जी सही कहा आपने। जो आयु अपनी प्रतिभा विकसित करने में लगानी चाहिए युवा उसे मौज मस्ती में खर्च कर रगे है। ये एक चिंतन का विषय है।
हटाएंचिंतनीय विषय उठाया है आपने..सार्थक लेखन ..
जवाब देंहटाएंसराहना के लिए धन्यवाद जिज्ञासा जी🙏
हटाएंबहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंअन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
आपको भी महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं शास्त्री जी
हटाएंअष्टावक्र को वर्तमान संदर्भ से जोड़कर बड़ी तथ्यात्मक बात कही है आपने अरविंंद जी
जवाब देंहटाएंसराहना के लिए आभार अलकनंदा जी
हटाएंचिंतनपरक सृजन ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मीना जी 🙏
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